Tuesday, April 04, 2006

धर्म की परिभाषा देनी ही पडेगी

धर्म जीवन एक विधी है जो व्यक्ति को उसके वास्तविक कर्तव्यों का बोध कराती है। धर्म का शाब्दिक अर्थ है धारण करना। अर्थात जो तत्व सम्पूर्ण संसार के जीवन को धारण करता हो, जिसके बिना संसार में व्यक्ति की स्थिती संभव न हो वही धर्म है।
यानी कि जिन सिद्धान्तों के अनुसार हम अपना दैनिक जीवन व्यतीत करते हैं तथा जिनके द्वारा हमारे सामाजिक सम्बंधों की स्थापना होती है, वही धर्म है।
जो बुद्धिजीवी यह कर धर्म को नकारते हैं कि हमने इतने ग्रंथ पढ लिये है और धर्म बैकार की बकवास है। जो यह कहते हैं की बिना धर्म के भी वे जीवन यापन कर सकते हैं, मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि धर्म एक तत्व है वह हिन्दु, मुस्लिम, सिख और ईसाई नहीं है। धर्म जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने की विधी है। धर्मानुसार हमें विभिन्न कार्य करने पडते हैं।
धर्म को आप नकार नहीं सकते क्योंकि धर्म वह है जो व्यक्ति के चरित्र और नैतिक भावनाओं को उत्तम करता है तथा व्यक्ति में कर्तव्य की भावना का विकास करता है।
धर्म को विस्तृत रूप में देखें। धर्म का रूप अत्यधिक विस्तृत है, यदि मैने पूरा यहां समझाने की कोशिश की तो यह एक क्लासरूम लगेगा। धर्म कर्तव्य है, आप कितने ही तथ्यों पर विश्वास करने वाले क्यों न हो कितने ही विज्ञान पर आधारित बाते समझने वाले क्यों न हो, परंतु आपको धर्मानुसार चलना ही पडता है।
इतनी धार्मिक बातें धर्म से सीखने के बाद आप धर्म से विरक्त चाह कर भी नहीं हो पाएगें।
1. क्या आप पितृ धर्म का पालन नहीं करेंगे?
2. क्या आप मातृ धर्म का पालन नहीं करेंगे?
3. क्या आप पुत्र धर्म नहीं निभाएंगे?
4. क्या आप पराई स्त्री पर नजर डालेंगे? (धर्म ने ही सिखाया है कि पराई नारी पर नजर न डालें)
5. क्या आप गुरुजनों का सम्मान नहीं करेंगे?
यही सब तो धर्म है।
बहुत कुछ और भी बाकी है,
लेकिन में सार में कहना चाहता हूँ कि जो तत्व कल्याण में सहायक हो, जिसके द्वारा मनुष्य सदैव अभय रहे, अधीनता और आत्म-शान्ति का अनुभव करे, जिसमें वास्तविक संतोष, वैभव और यश प्राप्त हो, उसी को धर्म कहा जाता है।

6 comments:

  1. धर्म के उपर यह अंतिम है।

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  2. "जिसमें वास्तविक संतोष, वैभव और यश प्राप्त हो, उसी को धर्म कहा जाता है।"...बहुत सटीक बात कह रहे हैं, युगल भाई.समीर लाल

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  3. धन्यवाद समीर लाल जी

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  4. Abhishek Mishra (7739395656)Monday, July 05, 2010 8:36:00 PM

    हम जिस धर्म की धार्मिकता को जी रहे हैं उसका मार्गदर्शन हमें हमारा परिवार/समाज करा रहा है, हमें परिवार के धर्म की धार्मिकता से बाहर निकल कर धार्मिक बनना होगा, सबके साथ-साथ चलना सही मायने में धार्मिकता है

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  5. धर्म = सत्य / न्याय + नीति
    अधर्म = धर्म का विपरित

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    1. धर्म अर्थात् सत्य / न्याय और नीति
      अधर्म अर्थात् जो धर्म के विपरीत हो
      गीता के अनुसार धर्म की हानि अर्थात् सत्य / न्याय एवं नीति का न होना

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