Thursday, October 01, 2015

प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध करने वाली एनी बेसेंट के 168 वें जन्मदिवस पर गूगल का डूडल



डॉ एनी बेसेन्ट (१ अक्टूबर १८४७ - २० सितम्बर १९३३) अग्रणी थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। डॉ॰ एनी बेसेन्ट (Dr. Annie Wood Besant) का जन्म लन्दन शहर में १८४७ में हुआ। इनके पिता अंग्रेज थे। पिता पेशे से डाक्टर थे। पिता की डाक्टरी पेशे से अलग गणित एवं दर्शन में गहरी रूचि थी। इनकी माता एक आदर्श आयरिस महिला थीं। डॉ॰ बेसेन्ट के ऊपर इनके माता पिता के धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव था। अपने पिता की मृत्यु के समय डॉ॰ बेसेन्ट मात्र पाँच वर्ष की थी। 
 युवावस्था में इनका परिचय एक युवा पादरी से हुआ। उसी रेवरेण्ड फ्रैंक से एनी बुड का विवाह भी हो गया। पति के विचारों से असमानता के कारण दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहा। १८७० तक वे दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं। ईश्वर, बाइबिल और ईसाई धर्म पर से उनकी आस्था डिग गई। पादरी-पति और पत्नी का परस्पर निर्वाह कठिन हो गया और अन्ततोगत्वा १८७४ में सम्बन्ध-विच्छेद हो गया।। तलाक के पश्चात् एनी बेसेन्ट को गम्भीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा और उन्हें स्वतंत्र विचार सम्बन्धी लेख लिखकर धनोपार्जन करना पड़ा।
डॉ॰ बेसेन्ट कथन ने अपना अधिकांश जीवन दीन हीन अनाथों की सेवा में ही व्यतीत किया। वह कई वर्षों तक इंग्लैण्ड की सर्वाधिक शक्तिशाली महिला ट्रेड यूनियन की सेक्रेटरी रहीं। १८७८ में ही उन्होंने प्रथम बार भारतवर्ष के बारे में अपने विचार प्रकट किये। उनके लेख तथा विचारों ने भारतीयों के मन में उनके प्रति स्नेह उत्पन्न कर दिया। अब वे भारतीयों के बीच कार्य करने के बारे में दिन-रात सोचने लगीं। उनका भारत आगमन १८९३ में हुआ। सन् १९०६ तक इनका अधिकांश समय वाराणसी में बीता। वे १९०७ में थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया।
 धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य प्रारम्भ किया। भारत के लिये राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने 'होमरूल आन्दोलन' संगठित करके उसका नेतृत्व किया।
२० सितम्बर १९३३ को वे ब्रह्मलीन हो गई। आजीवन वाराणसी को ही हृदय से अपना घर मानने वाली बेसेन्ट की अस्थियाँ वाराणसी लाई गयीं और शान्ति-कुञ्ज से निकले एक विशाल जन-समूह ने उन अपशेषों को ससम्मान सुरसरि को समर्पित कर दिया।
उन्होंने 'ब्रदर्स आफ सर्विस' नामक संस्था का संगठन किया। इस संस्था की सदस्यता के लिये नीचे लिखे प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करना आवश्यक था। 
१. मैं जाति पाँति पर आधारित छुआछूत नहीं करुँगा।
२. मैं अपने पुत्रों का विवाह १८ वर्ष से पहले नहीं करुँगा।
३. मैं अपनी पुत्रियों का विवाह १६ वर्ष से पहले नहीं करुंगा।
४. मैं पत्नी, पुत्रियों और कुटुम्ब की अन्य स्त्रियों को शिक्षा दिलाऊँगा; कन्या शिक्षा का प्रचार करुँगा। स्त्रियों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करुँगा।
५. मैं जन साधारण में शिक्षा का प्रचार करुँगा।
६. मैं सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में वर्ग पर आधारित भेद-भाव को मिटाने का प्रयास करुँगा।
७. मैं सक्रिय रूप से उन सामाजिक बन्धनों का विरोध करुँगा जो विधवा, स्त्री के सामने आते हैं तो पुनर्विवाह करती हैं।
८. मैं कार्यकर्ताओं में आध्यात्मिक शिक्षा एवं सामाजिक और राजनीतिक उन्नति के क्षेत्र में एकता लाने का प्रयत्न करूंगा। 

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