Thursday, October 22, 2015

जातिवादी अत्याचार को दलगत राजनीति से उठकर देखें


फरीदाबाद के सुनपेड़ गाँव जैसी शर्मनाक घटनाएं लगातार हमारे समाज का हिस्सा बनी हुई हैं।  विभिन्न पार्टियों के सत्ता में आने-जाने से तमाम कमजोर समुदायों की हालत में कोई फर्क नहीं पड़ा।

अभी 30 सितंबर को ही उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में 90 वर्षीय दलित की सवर्ण जाति के व्यक्ति ने सिर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह पूजा करने के लिए मंदिर में प्रवेश की कोशिश कर रहा था। (यहाँ तो कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं थी)

 तमिलनाडु के मदुरै से खबर आई है कि वहां उथपुरम गांव में एक मंदिर के पास पीपल के पेड़ की पूजा करने की दलितों की कोशिश से तनाव पैदा हो गया, कि सवर्ण समूहों ने इस पर एतराज किया। 

शायद ही कोई दिन गुजरता हो, जब देश के किसी-न-किसी हिस्से में महज दलित परिवार में जन्म लेने के कारण किसी व्यक्ति/व्यक्तियों के बेरहमी का शिकार बनने की खबर मीडिया में देखने को न मिलती हो। आम लड़ाई-झगड़े की घटनाएं ऐसे जुल्म में तब्दील हो जाती हैं, तो इसलिए कि समाज के एक तबके में दलितों को ‘छोटा’ या उनकी जान को महत्वहीन मानने का भाव बना हुआ है। 

 ऐसा ही सुनपेड़ में हुआ। मोबाइल फोन को लेकर हुए झगड़े की ऐसी परिणति हुई। उल्लेखनीय है कि दलित परिवार की हिफाजत के लिए तैनात पुलिककर्मियों ने भी कर्तव्य-पालन में लापरवाही बरती। इससे देश का सिर कलंकित हुआ है, मगर ऐसी घटनाओं को दलगत राजनीति से उठकर देखने की जरूरत है। राजनीतिक दल सचमुच दलितों को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्हें ऐसी ज्यादतियों के प्रति शून्य सहिष्णुता दिखाने और उस संकल्प को यथार्थ में बदलने पर आम सहमति बनानी चाहिए।

वरना, भारत लज्जित होता रहेगा। 


{भास्कर से} 

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