Thursday, October 29, 2015

अभी मानसिकता बदली नहीं है

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश दीपक मिश्रा और पीसी पंत की पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा की उच्च शिक्षण संस्थाओं मे से आरक्षण को खत्म किया जाना चाहिए। इस पर दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने ईमानदार और बेबाक टिप्पणी करते हुए प्रतिक्रिया दी। 

मेरी कई बेहतर दलित चिकित्सकों से बात हुई। उनके मुताबिक हम दावे के साथ कह सकते हैं की दलित चिकित्सकों को इंटर्नल परीक्षा मे कम और एक्स्टर्नल परीक्षा मे अधिक अंक प्राप्त होते हैं। इसी तरह प्रेक्टिकल मे कम अंक आते हैं और थ्योरी मे अधिक। यदि स्पेशियलिटी और सुपर स्पेशियलिटी विषयों को बात छोड़ दें तो यह बात साबित करती है की दलितों के पर कतरने की कार्यवाही पहले ही होने लगती है।

मुझे लगता है की उच्चतम न्यायालय को देश के दस टॉप मेडिकल कॉलेजों से दलित समुदाय के डॉक्टरों के परीक्षा मे रहे प्रदर्शन को मँगवा कर सच्चाई का पता लगा लेना चाहिए। यदि इंटर्नल-एक्स्टर्नल और प्रेक्टिकल-थ्योरी के प्रदर्शन मे असंतुलन दिखाई देता है, न्यायालय की इस तरह की टिप्पणी पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

जारी रहना चाहिए

यदि उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी की मैं बात करूँ तो यह मेरे विरुद्ध भी है। मुझे आरक्षण नहीं मिला होता तो पीएचडी करने मे कठिनाई आती। एक ऐसा तबका जिसके लोगों ने 100 साल पहले तक स्कूल या कॉलेज मे जाना भी नहीं सीखा था। उन्होने अभी तो पढ्ना शुरू किया है तो फिर उनके लिए तो आरक्षण जारी रहने देना चाहिए। अभी समाज की मानसिकता मे बदलाव नहीं आया है। दलितों के प्रति उच्च वर्ण कहे जाने वालों का नजरिया तो देखें। प्रतापगढ़ मे इसी साल मई मे दलित मजदूर वर्ग के दो भाइयों ने सामान्य श्रेणी मे आईआईटी की परीक्षा पास की तो गाँव वालों ने मिलकर उनके घर पर पत्थर फेंके।


अस्वीकार्य है ये नजरिया 

हम तो यह जानते हैं की लगभग सभी विश्वविध्यालयों मे यदि कोई दलित वर्ग का व्यक्ति पीएचडी करना चाहता है तो उसे गाइड नहीं मिलता। यदि कोई आम आदमी आरक्षण को लेकर कोई बात कहता है तो उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। लेकिन यदि कोई प्रोफेसर या न्यायाधीश आरक्षण को लेकर इस तरह की टिप्पणी करते हैं की एडमिशन के लिए मेरिट ही प्राथमिकता होनी चाहिए, तो टीवी देखने वाले या अखबार पढ़ने वालों के मन मे कैसे विचार पैदा होते होंगे, यह सोचने वाली बात है। उच्चतम न्यायालय की ज्यूडिश्यिरी भी तो उच्च स्तर की है, मुझे लगता है की यदि इसमे आरक्षण होता तो माननीय न्यायालय इस तरह की बात नहीं कहता। सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी टिप्पणी अस्वीकार्य है। उसे जरूरत पढ़ने पर चुनौती दी जानी चाहिए। आखिर हम लोकतान्त्रिक देश मे रह रहे हैं। कल को न्यायपालिका कह देगी की संसद के लिए भी आरक्षण को समाप्त करो क्योंकि उनका तर्क तो वहाँ भी लागू होगा।

ध्यान दीजिये की इस देश मे संविधान विशेषज्ञ अंबेडकर ही दो बार चुनाव हार गए थे। ऐसे मे कैसे समाज मे बदलाव आएगा? मुझे लगता है की न्यायालय की सोचना चाहिए की अभी समाज नहीं बदला है। 

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